कनक कनक ते मादकता अधिकाय....
जो अब भी तुमहरा खून नहीं खौलता तो वो पानी है
थक नहीं जाते तुम औरों के उत्सर्ग की फसल काटके अपने वंश का खलिहान भरते भरते ?
कैसे हो तुम रहनुमा कि मां तुम्हारी लजा गयी
जब वोह रंग गया उसकी छाती
अतिथिओं और बंधुओं के खून से
कन्दाहर से मुंबई की राह वो तै कर गए
और तुम बस शब्दों के जाल उधेड़ते बुनते रहे
शरणागत की रक्षा में प्राणों का सहर्ष तज जाते थे तुम्हारे ही अपने
पर बीज तुम्हारे स्वार्थ के अक्षय पात्र में रख छोडे हैं तुमने
भूल गए तुम कि राम भी यहीं जन्मा था और राजधर्म की भेंट सर्वस्व कर गया
तुम वहीँ हर ऋतू में नए मित्र ढूँढ लेते हो
धर्म और भद्रता का यह कैसा पाखंड है कि
अंतहीन है तुम्हारे मूल्यों की करवटें
और तुम अपने सपूतों के बलिदान को रुपयों में तोल देते हो हर बार
मुआयनों में जीवन का मुआवजा बाँट जाते हो
यह कैसी है तुम्हारी आत्मा
बोझ नहीं जिस पर भाई के रक्त की नदी में स्नान से भी होता
शर्म आती है मुझे की हमारी जननी एक है
भूख तुम्हारी अबूझ है मुझे ,कि संतान की चिता पर भी सेक लेते हो तुम अपनी रोटियां
कैसा है भोला मेरा भाई जो तुम्हे सौंप देता है अपना मुस्तकबिल हर बार
कैसें हैं वोह सपूत जो रामायण पढ़े हैं
और फ़र्ज़ जान कर तुम्हारी शिखंडियों को अपना अतिथि स्वीकार लेते हैं
याचक नहीं समझ लेना जो उसने
श्रद्धा के फूल रख दिए तुम्हारे दामन में
यह बस एक मौका है
जान अपनी तुम्हारे ईमान के हवाले कर के वो जो तुम्हे दे गये
अब न माँगना अपने भाई से उसके सब्र का इम्तिहान
या उसकी सादा दिली का सबूत
अब कुछ है नहीं खो देने या पा जाने को उसके पास
स्वाभिमान और सम्मान ही का है मूल उसका
आजादियों और सरहदों का छलावा अब नहीं निगलेंगे यह लोग
और उतना नहीं है ओज तुझमे
सत्व कि परीक्षा जो इस मासूम की ले सके
आँख मिलाएगा, तो जल जाएगा तू
मां के दूध का क़र्ज़ अब अदा कर
बहुत हो गया चूहे बिल्ली का खेल अब
अब और जब्त की उम्मीद न कर
क्योंकि तेरी न सही निर्लज्ज,
यह मेरी मां का दामन है जो आज भीग गया
दैनिक भास्कर | 25 जुलाई 2019
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